काफ़िर का ईमाँ
- Arpita Ke Alfaz

- Aug 20, 2021
- 1 min read
ज़ख्म दर ज़ख्म सहे इसकदर तन्हा साँसे आयी भी तो अजनबी की तरहाँ...
उसने चाही सदा ही खुशी की इनायत हम लुटते रहे काफिर के ईमाँ की तरहाँ...
तेरे लिखे वादों को खुद ही जला दिया वरना मुकरते तुम, बाकी बातों की तरहाँ...
हर दर्द को सहेज लिया मुकद्दर समझ कर लुटा नहीं सकती उसे तमाम हासिल की तरहाँ...
ना गिला, ना शिकवा, उस ‘खुदा’ से बेबस मुझे वह लगता है आदमी की तरहाँ...
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’

Comments