top of page
Search

काफ़िर का ईमाँ

  • Writer: Arpita Ke Alfaz
    Arpita Ke Alfaz
  • Aug 20, 2021
  • 1 min read


ज़ख्म दर ज़ख्म सहे इसकदर तन्हा साँसे आयी भी तो अजनबी की तरहाँ...


उसने चाही सदा ही खुशी की इनायत हम लुटते रहे काफिर के ईमाँ की तरहाँ...


तेरे लिखे वादों को खुद ही जला दिया वरना मुकरते तुम, बाकी बातों की तरहाँ...


हर दर्द को सहेज लिया मुकद्दर समझ कर लुटा नहीं सकती उसे तमाम हासिल की तरहाँ...


ना गिला, ना शिकवा, उस ‘खुदा’ से बेबस मुझे वह लगता है आदमी की तरहाँ...

-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’

 
 
 

Recent Posts

See All
मैं स्त्री हूँ…बस यही काफी है…

Arpita Ke Alfaz कविता मैं स्त्री हूँ…बस यही काफी है… कभी जात-पाँत के नाम पर कभी धर्म-अधर्म के काम पर और कभी – कभी तो ‘नारी’ इनका प्रिय...

 
 
 
परिपूर्ण जीना चाहती हूँ…

ओ सूरज, सुना है तुम सबको उजाले बाँटते हो… पर बरसों से मैं तुम्हारे आने की राह देखती हूँ… मेरे हिस्से की रोशनी कब दोगे मुझे??? रोज़ खुली...

 
 
 
एक मर्तबा…

जब भी मिलते हैं साथी पुराने हाल पूछ लेते हैं…. कैसे हैं हम, और शायरी हमारी ये सवाल पूछ लेते हैं…. उदासी पर लेकर घूँघट हम तबस्सुम का अदा...

 
 
 

Comments


Join my mailing list

Thanks for submitting!

© 2023 by The Book Lover. Proudly created with Wix.com

bottom of page