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मैं स्त्री हूँ…बस यही काफी है…

Arpita Ke Alfaz कविता मैं स्त्री हूँ…बस यही काफी है… कभी जात-पाँत के नाम पर कभी धर्म-अधर्म के काम पर और कभी – कभी तो ‘नारी’ इनका प्रिय...

परिपूर्ण जीना चाहती हूँ…

ओ सूरज, सुना है तुम सबको उजाले बाँटते हो… पर बरसों से मैं तुम्हारे आने की राह देखती हूँ… मेरे हिस्से की रोशनी कब दोगे मुझे??? रोज़ खुली...

एक मर्तबा…

जब भी मिलते हैं साथी पुराने हाल पूछ लेते हैं…. कैसे हैं हम, और शायरी हमारी ये सवाल पूछ लेते हैं…. उदासी पर लेकर घूँघट हम तबस्सुम का अदा...

काफ़िर का ईमाँ

ज़ख्म दर ज़ख्म सहे इसकदर तन्हा साँसे आयी भी तो अजनबी की तरहाँ... उसने चाही सदा ही खुशी की इनायत हम लुटते रहे काफिर के ईमाँ की तरहाँ... तेरे...

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